बचपन से लेकर बुढापे तक इंसान के क्यों कभी जिज्ञासावशहोते हैं तो कभी आवश्यकतावश।
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वे बचपन से लेकर बुढापे तक केवल सोचते ही रहते हैं और एक दिन सोचते-सोचते चले भी जाते हैं।
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उसके बचपन से लेकर बुढापे तक एक बात हमेशा शाश्वत रहेगी, उसका पिता कौन है नहीं मालूम, जो एक कठिन परिस्थिति होगी।
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बचपन से लेकर बुढापे तक चूल्हे की आग में सुलगती स्त्री के तमाम दृश्य जिस तरह कविता में आते चले जाते हैं उन्हें पढ़ते हुए आप एक गहरे संताप और उद्विग्नता से भर जाते हैं.
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एक सामान्य परिवार मे ही देख लिजिये कि बचपन से लेकर बुढापे तक संबंध कैसे स्नेह, दुराव, द्वेष आदि के अनुरूप बदलते रहते हैं कभी संपत्ति के नाम पर, कभी विवाह के नाम पर....
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समय और परिस्थिति के अनुसार इन सभी जगहों पर थोडा बहुत परिवर्तन भले ही मिल जाए, पर यह सत् य है कि सभी मनुष् य बचपन से लेकर बुढापे तक के इस यथार्थ के जीवन को झेलने को मजबूर है।
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तभी हज़रत खलील को खुदा की आवाज़ सुनाई दी-“खलील, तूने यह क्या किया! मैंने इस बूढे को बचपन से लेकर बुढापे तक ज़िन्दगी और खाना दिया और तू कुछ देर के लिए भी उसे आसरा नहीं दे सका! वह अग्नि की पूजा करता है तो क्या हुआ, वह इंसान तो है!
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एक सामान्य परिवार मे ही देख लिजिये कि बचपन से लेकर बुढापे तक संबंध कैसे स्नेह, दुराव, द्वेष आदि के अनुरूप बदलते रहते हैं कभी संपत्ति के नाम पर, कभी विवाह के नाम पर....खैर, यह उनकी बदकिस्मती ही कही जाएगी कि हम लोगों ने ही उनका मान न रखा जिस इलाके से हिंदी पट्टी से वह ताल्लुक रखते हैं।
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बचपन से लेकर बुढापे तक का अहसास अपने अल्फाजों में उकेरने वाली बहन रश्मि प्रभा जो जीवंत साहित्यकार हैं और शायद एक अभिमन्यु की तरह से ही इन्होने साहित्यकार माँ के गर्भ में साहित्य का पाठ पढ़ा हो इसीलियें तो साहित्य के चक्रव्यूह का घेरा बहन रश्मि आज तोड़ कर लोगों को भाईचारा, सद्भावना, प्रेम भाव, एकता की सीख दे रही हैं..